दयानंद सरस्वती भारत के इतिहास में सबसे कट्टरपंथी सामाजिक-धार्मिक सुधारकों में से एक थे। स्वामी दयानंद सरस्वती आर्य समाज के संस्थापक थे और उन्होंने वेदों के समतावादी दृष्टिकोण का प्रचार उस समय किया जब समाज में व्यापक जातिवाद प्रचलित था।
स्वामी दयानंद सरस्वती भारत के एक धार्मिक नेता से बढ़कर थे जिन्होंने भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव छोड़ा। उन्होंने आर्य समाज की स्थापना की जिसने भारतीयों की धार्मिक धारणा में परिवर्तन लाये। उन्होंने मूर्तिपूजा और खाली कर्मकांड पर व्यर्थ जोर देने के खिलाफ अपनी राय दी, और मानव निर्मित हुक्म दिया कि महिलाओं को वेद पढ़ने की अनुमति नहीं है। उनके जन्म के बदले स्वयं को विरासत में मिली जाति व्यवस्था की निंदा करने का उनका विचार कट्टरपंथी से कम नहीं था।
उन्होंने भारतीय छात्रों को समकालीन अंग्रेजी शिक्षा के साथ-साथ वेदों के ज्ञान को पढ़ाने वाले एक अद्यतन पाठ्यक्रम की पेशकश करने के लिए एंग्लो-वैदिक स्कूलों की शुरुआत करके शिक्षा प्रणाली का पूरा बदलाव किया। हालाँकि वे वास्तव में कभी भी सीधे राजनीति में शामिल नहीं थे, लेकिन उनकी राजनीतिक टिप्पणियां भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कई राजनीतिक नेताओं के लिए प्रेरणा का स्रोत थीं। उन्हें महर्षि की उपाधि दी गई थी और उन्हें आधुनिक भारत के निर्माताओं में से एक माना जाता है।
स्वामी दयानंद सरस्वती की जीवनी (Dayananda Saraswati Biography in Hindi)
दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी, 1824 को गुजरात के टंकारा में मूल शंकर के रूप में करशनजी लालजी तिवारी और यशोदाबाई के घर हुआ था। उनका समृद्ध और प्रभावशाली ब्राह्मण परिवार भगवान शिव का प्रबल अनुयायी था। परिवार में गहरा धार्मिक होने के कारण, मूल शंकर को बहुत कम उम्र से ही धार्मिक अनुष्ठान, पवित्रता और पवित्रता, उपवास का महत्व सिखाया जाता था।
- नाम- महर्षि दयानद सरस्वतीं
- जन्म नाम – मूल शंकर तिवारी
- महर्षि दयानंद सरस्वतीं का जन्म– 12 फरवरी 1824
- पिता का नाम – करशनजी लालजी तिवारी
- माता का नाम – यशोदाबाई
- महर्षि दयानंद सरस्वतीं का जन्म स्थान– टंकारा ,गुजरात
- महर्षि दयानंद सरस्वतीं की मृत्यु– 30 अक्टूबर 1883
- महर्षि दयानंद सरस्वतीं का कार्यक्षेत्र- समाज सुधारक
- महर्षि दयानंद सरस्वतीं की उपलब्धि- आर्य समाज की स्थापना
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा (Early Life and Education)
जब वह 8 वर्ष के थे, ब्राह्मणवाद की दुनिया में प्रवेश कराया था। वह इन अनुष्ठानों का बहुत ईमानदारी से पालन करता था। पिता के कहने पर शिवरात्रि के अवसर पर, मूल शंकर भगवान शिव की आज्ञाकारिता में पूरी रात जागते रहते। ऐसी ही एक रात में, उसने एक चूहे को भगवान को प्रसाद खाते हुए और मूर्ति के शरीर पर दौड़ते हुए देखा। यह देखने के बाद उन्होंने अपने आप से सवाल किया, अगर भगवान एक छोटे से चूहे के खिलाफ अपनी रक्षा नहीं कर सकते हैं तो वे विशाल दुनिया के रक्षक कैसे हो सकते हैं। इस घटना ने स्वामी जी के जीवन पर बदलाव पड़ा और उन्होंने आत्म ज्ञान के लिए अपना घर छोड़ दिया और ज्ञान से जरिये उन्होंने अपना नाम मूलशंकर तिवारी से महर्षि दयानंद सरस्वती नाम दिया।
1857 की क्रांति में योगदान (Swami Dayanand Saraswati in 1875 founded the)
1846 में घर से निकलने के बाद उन्होंने सबसे पहले अंग्रेजो के खिलाफ बोलना प्रारम्भ किया, उन्होंने देश भ्रमण के दौरान यह पाया, कि लोगो में भी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आक्रोश हैं, बस उन्हें उचित मार्गदर्शन की जरुरत है, इसलिए उन्होंने लोगो को एकत्र करने का कार्य किया। उस समय के महान वीर भी स्वामी जी से प्रभावित थे, उन में तात्या टोपे, नाना साहेब पेशवा, हाजी मुल्ला खां, बाला साहब आदि थे, इन लोगो ने स्वामी जी के अनुसार कार्य किया।
लोगो को जागरूक कर सभी को सन्देश वाहक बनाया गया, जिससे आपसी रिश्ते बने और एकजुटता आये। इस कार्य के लिये उन्होंने रोटी तथा कमल योजना भी बनाई और सभी को देश की आजादी के लिए जोड़ना प्रारम्भ किया। इन्होने सबसे पहले साधू संतो को जोड़ा, जिससे उनके माध्यम से जन साधारण को आजादी के लिए प्रेरित किया जा सके।
हालाँकि 1857 की क्रांति विफल रही, लेकिन स्वामी जी में निराशा के भाव नहीं थे, उन्होंने यह बात सभी को समझायी। उनका मानना था कई वर्षो की गुलामी एक संघर्ष से नही मिल सकती, इसके लिए अभी भी उतना ही समय लग सकता है, जितना अब तक गुलामी में काटा गया हैं। उन्होंने विश्वास दिलाया कि यह खुश होने का वक्त हैं, क्यूंकि आजादी की लड़ाई बड़े पैमाने पर शुरू हो गई हैं और आने वाले कल में देश आजाद हो कर रहेगा। उनके ऐसे विचारों ने लोगो के हौसलों को जगाये रखा। इस क्रांति के बाद स्वामी जी ने अपने गुरु विरजानंद के पास जाकर वैदिक ज्ञान की प्राप्ति का प्रारम्भ किया और देश में नये विचारों का संचार किया। अपने गुरु के मार्ग दर्शन पर ही स्वामी जी ने समाज उद्धार का कार्य किया।
दयानंद सरस्वती के राजनीतिक विचार
स्वामी दयानन्द राजनीतिक विचारक न होकर एक उच्च श्रेणी के समाज सुधारक थे। लेकिन उन्होने सामाजिक एवं राजनीतिक दोनों ही विचारों में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। उनके राजनीतिक प्रभाव के मुख्यतः दो कारण है-
प्रथम – उन्होंने हिन्दी में वेदों का सार प्रस्तुत करके, दलितों एवं नारी उद्धार हेतु संघर्ष करके पुरातन कुप्रथाओं और संकीर्णताओं का विरोध करके स्वराज्य का नारा बुलन्द करके भारतीय जनजीवन में नवचेतना का संचार किया। जिससे भारत की राजनीतिक स्वतन्त्रता की पृष्ठभूमि तैयार हुई। इस पृष्ठभूमि पर ही चलकर भारत ने स्वतन्त्रता प्राप्त की दूसरे, स्वामी दयानन्द ने आर्य समाज की स्थापना की, जो एक शक्तिशाली संस्था के रूप में भारतीय रजत पर स्थापित हुई। इसके द्वारा उन्होंने समस्त भारत में समानता एवं स्वतन्त्रता का सन्देश घर घर पहुँचाया। उनके राजनीतिक विचार ‘सत्यार्थ प्रकाश’ तथा ‘ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका’ दोनों ग्रन्थों में मिलते हैं। संक्षेप में उनके राजनीतिक विचार निम्नलिखित हैं—
स्वशासन और स्वराज्य
‘स्वशासन’ तथा ‘स्वराज्य’ की पुकार सर्वप्रथम महर्षि दयानन्द के द्वारा उठाई गई थी। उन्होंने यह उद्घोश उस समय किया था जब कोई भी व्यक्ति यह साहस नहीं कर सकता था कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध कुछ कहे। उनका यह शक्तिशाली तथा निर्भीक कथन ही सर्वप्रथम भारत के वायु मण्डल में गूंजा थाः विदेशी सरकार चाहे सब में प्रकार से धार्मिक, पक्षपातों से मुक्त तथा देशी व विदेशी लोगों के प्रति निष्पक्ष ही क्यों न हो, लोगों को पूर्ण रूप से प्रसन्नता प्रदान नहीं कर सकती।
स्वामी जी के ये सभी विचार राष्ट्रवादी थे। भारत पर गर्व करो, प्राचीन वैदिक संस्कृति का अनुसरण करो तथा भारत को फिर से उन्नत करने का प्रयास करो। इन्हीं विचारों का स्वामी दयानन्द ने सम्पूर्ण जनता में प्रचार किया जिससे लोगों के मन में विदेशी शासन के प्रति आक्रोश उत्पन्न हुआ और आगे चलकर स्वतन्त्रता आन्दोलन के लिए पृष्ठभूमि तैयार हुई। राष्ट्रीय चेतना की भावना को जागृत करने में भारत के प्राचीन वैभव एवं शौर्य के प्रति जनता को शिक्षित करके स्वामी दयानन्द ने महत्वपूर्ण कार्य किया था। बेलेटाइन शिरोल ने इस तथ्य को स्वीकार किया है। कि स्वामी दयानन्द की शिक्षाएं महान् राष्ट्रवाद से ओत प्रोत थी। उनका यह कथन स्मरणीय है: “दयानन्द की शिक्षाओं का महत्वपूर्ण प्रवाह हिन्दूवाद को सुधारने की अपेक्षा इसे सक्रिय विरोध के क्रम में रखना था जिससे कि यह विदेशी प्रवाहों को रोक सके जो कि उनके विचार में इसे अराष्ट्रीय बनाने की धमकी दे रहे थे।”
भारतीय राष्ट्रवाद
मुस्लिमकाल में हिन्दू धर्म पर अत्याचार तथा उसका विनाश, 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम की असफलता के पश्चात् की दशा तथा ईसाई धर्म प्रचारकों के कार्य कलाप और शासन की ओर से उनकी सहायता के फलस्वरूप समाज और धर्म की जो हानि हो रही थी उसे देखकर स्वामी जी ने अनुभव किया कि धर्म ही सब प्रकार की विपत्तियों से रक्षा कर सकता है, अत उनके धार्मिक पुनर्जागरण के प्रयास में राष्ट्रीय पुनर्जागरण का दूरगामी प्रभाव भी था। उनके विचार से पारस्परिक फूट, शिक्षा की कमी, जीवन में शुद्धता का अभाव, धर्म से विमुखता तथा अन्य धार्मिक कुरीतियों के कारण भारत का पतन हुआ था। भारतीय सामाजिक तथा राष्ट्रीय भावना एवं चरित्र की स्वामी जी के द्वारा चतुर्दिक उन्नति को लक्ष्य करके ही गांधी ने उन्हें बारम्बार आदर एवं श्रद्धा के साथ प्रणाम किया। स्वामी जी के लिए रवीन्द्र का यह कथन अक्षरशः सत्य है:
“वे ऐसा बौद्धिक जागरण चाहते थे जो आधुनिक युग की प्रगतिशील भावना के साथ सामंजस्य स्थापित कर सके और साथ ही साथ देश के उस गौरवशाली अतीत के साथ अटूट सम्बन्ध बनाए रख सके। जिसमें भारत ने अपने व्यक्तित्व का कार्य तथा चिन्तन की स्वतन्त्रता में और आध्यात्मिक साक्षात्कार के निर्मल प्रकाश के रूप में व्यक्त किया था।”
स्वदेशी वस्तुओं से प्रेम
स्वामी दयानन्द ने ही उस राष्ट्रीयता की भावना को उभारा था जिसे आगे चलकर गाँधी ने बढ़ाया। स्वामी जी का मत था कि स्वदेशी राज्य ही सर्वोत्ततम है। स्वधर्म, स्वराज्य, स्वदेशी वस्तुएं, और स्वभाषा आदि सभी से सम्बन्ध में उनके जो विचार थे उनसे समाज में स्वराज्य की भावना पुष्ट हुई। उन्होंने जनता को इस बात के लिए समझाया एवं प्रोत्साहित किया कि सब लोग विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार करें और देश में बने खादी के कपड़े पहने। जोधपुर के तत्कालीन नरेश स्वामी दयानन्द के विचारों से इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होंने स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग आरम्भ कर दिया तथा विदेशी वस्तुओं का परित्याग किया।
लोकतंत्र का समर्थन
अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने उस लोकतंत्र के निर्माण, स्वरूप, शासन तथा न्याय सम्बन्धी धारणाओं की विवेचना की है जिसकी वे भारत में स्थापना करना चाहते थे। वह उनका आदर्श लोकतन्त्र था। स्वामी जी के चिन्तन, मनन और व्यवहार में वे तीन आदर्श समान रूप से देखे जाते हैं जिन पर वर्तमान लोकतंत्र आधारित है। वे हैं स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व। स्वामी जी ने जिस लोकतन्त्र की कल्पना की थी उसमें यह व्यवस्था है कि जनसाधारण स्वतन्त्रता को समान आधार पर भोग सके। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सभी उचित कार्यों के लिए पूर्ण स्वतन्त्रता है। कोई शक्ति इसमें बाधक नहीं हो सकती।
स्वामी जी ने एकाधिकारवाद एवं विशेषाधिकारवाद की प्रवृत्तियों को स्वीकार नहीं किया जिससे कि समानता आ सके। उनका लोकतंत्र प्रत्येक वर्ग, वर्ण, धर्म, जाति तथा लिंग के लिए मान है और उसमें यह नितान्त आवश्यक है कि समानता के आदर्श पर सभी आचरण करें। स्वामी जी भ्रातृत्व की भावना को आवश्यक मानते थे जिससे सामाजिक जीवन गतिशील बना है। उनके लोकतन्त्र के प्रारूप का मूल स्रोत ‘मनुस्मृति’ है जिसकी शिक्षा के अनुसार ही उन्होंने यह व्यवस्था रखी है कि राज्य व्यवस्था में सभासदों तथा मन्त्रियों का आचरण मर्यादित हो। नैतिकता के आधार पर धार्मिक मान्यताओं का समर्थन भी ‘मनुस्मृति’ के अनुकूल ही है।
राष्ट्रभाषा हिंदी का समर्थन
स्वामी दयानन्द का जन्म गुजरात में हुआ था। स्वभावतः उन्हें अपनी प्रान्तीय भाषा, गुजराती विशेष प्रिय थी। परन्तु उनकी दृष्टि में केवल प्रान्त नहीं, पूरा राष्ट्र था। वे सम्पूर्ण के प्रतिनिधि थे तथा उनका दृष्टिकोण संकुचित न होकर बड़ा व्यापक था। अपने राष्ट्रवादी सिद्धान्त के अनुसार वे स्वराज्य, स्वदेशी, स्वधर्म और स्वभाषा सभी को पूरे भारत के परिवेष में देखते थे। अतः उन्होंने राष्ट्रीय भावना से प्रेरित होकर तथा राष्ट्रीयता को प्रोत्साहित करने हेतु अपनी समस्त टीकायें तथा ग्रन्थ राष्ट्रभाषा हिन्दी में ही लिखे।
दयानंद सरस्वती के धार्मिक और सामाजिक विचार
स्वामी दयानन्द की गणना भारत के उन महान् पुरुषों में की जाती है जो हिन्दू जाति और हिन्दू राष्ट्र के पुनरुत्थान के लिए अवतरित हुए हैं। उनका भारतीय इतिहास में वही स्थान है जो स्थान महावीर, महात्मा बुद्ध एवं शंकराचार्य को प्राप्त है। वे एक महान् धर्म सुधारक, समाजसुधारक तथा निर्भीक सत्यवादी नेता थे। वे सत्य के दृष्टा एवं वेदों की सर्वोच्चता के समर्थक थे। उनके समय में भारत की राजनीति तथा सामाजिक स्थिति अत्यन्त शोचनीय थी। एक ओर विदेशी शासन के अन्तर्गत देशवासियों पर पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव स्थापित हो रहा था। दूसरी ओर हिन्दू समाज कुरीतियों एवं अन्ध विश्वासों का अखाड़ा बना हुआ था। इस विषय परिस्थिति में स्वामी दयानन्द ने भारतीय संस्कृति की रक्षा और प्राचीन गरिमा को पुनः स्थापित करने के लिए अपना तन मन धन सभी कुछ लगा दिया। उन्होंने अन्धविश्वास तथा पाखण्डवाद के विरुद्ध जबरदस्त आन्दोलन प्रारम्भ किया। वे एक राजनीतिक विचारक की अपेक्षा एक समाज सुधारक अधिक थे। उन्हें विश्व का सबसे महान् समाज सुधारक कहा गया है। संक्षेप में स्वामी दयानन्द के सामाजिक विचार निम्नलिखित है—
जाति प्रथा का विरोध
दयानन्द जी के काल में दलित वर्ग को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपमान और घुटन के वातावरण में रहना पड़ता था। उन्हें समाज में स्वतन्त्र अस्तित्व अथवा व्यक्तित्व के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं थी। बल्कि उन्हें हीन समझा जाता था। उन्हें मन्दिरों में जाने नहीं दिया जाता था और ना ही उन्हें वेद अध्ययन के योग्य माना जाता था। दयानन्द जी ने इसे पंडितों और ब्राह्मणों का पाखण्ड जाल बताया। वे कहा करते थे कि जैसे परमात्मा ने सभी प्राकृतिक वस्तुयें समान रूप से प्रत्येक मनुष्य को प्रदान की है, उसी प्रकार वेद सबके लिए प्रकाशित हैं। वे जाति के आधार पर शुद्र नहीं मानते थे किन्तु वे कहते थे, जिसे पढ़ना-पढ़ाना न आये, वह निबुद्धि और मूर्ख होने से शूद्र है। इस व्याप्त जाति प्रथा के कारण ही हिन्दू समाज असंगठित एवं शक्तिविहीन है। समाज को सशक्त और उन्नत बनाने हेतु जाति प्रथा एवं अस्पृश्यता को नष्ट करना ही होगा। इनके द्वारा चलाये गये आन्दोलन को महात्मा गांधी ने सम्बल प्रदान किया। इस विषय में महात्मा गांधी कहा करते थे— “स्वामी दयानन्द की सी देनों में उनकी अस्पृश्यता के विरुद्ध घोषणा निःसन्देह एक महानतम् देन है।”
कुप्रथाओं का विरोध
स्वामी दयानन्द वैदिक धर्म के कट्टरता की सीमा तक ‘अनुयायी थे। फिर भी कभी उन्होंने कुप्रथाओं का समर्थन नहीं किया। वे हमेशा समाज में फैली कुप्रथाओं का विरोध किया करते थे। वे बाल-विवाह, दहेज प्रथा, बलात वैधव्य जैसी प्रथाओं का कट्टर विरोध करते थे।
विवेकपूर्ण जीवन साथी का चुनाव करने हेतु तथा सबल व स्वस्थ सन्तान हेतु वे कहा करते थे कि विवाह के समय लड़कों की आयु 25 वर्ष और लड़कियों की आयु कम से कम 16 वर्ष होनी चाहिए। इससे कम उम्र में विवाह से नैतिक जीवन तथा स्वास्थ्य जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थक
यद्यपि स्वामी दयानन्द जातिवाद तथा अस्पृश्यता ‘आदि कुप्रथाओं के कट्टर विरोधी थे तथापि वे वर्णाश्रम के समर्थक थे। वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थक होने पर भी प्रचलित वर्णाश्रम व्यवस्था का विरोध इस बात पर करते थे कि वर्ण कर्म के आधार पर निश्चित किया जाना चाहिये न कि जन्म के आधार पर। वे कर्म के साथ-साथ गुणों एवं प्रकृति का भी ध्यान रखने को कहते थे। यह सर्वविदित है कि आर्य समाज वर्णाश्रम व्यवस्था का इच्छित रूप प्राप्त नहीं कर सका परन्तु उसके बन्धनों को ढीला करने में अवश्य सफल हुआ।
मूर्ति पूजा का विरोध
राजा राममोहन राय की भांति स्वामी दयानन्द भी मूर्तिपूजा का विरोध किया करते थे। वे अंधविश्वास तथा पाखण्ड को पूर्तिपूजा के द्वारा ही जन्मा मानते थे। इसलिए वे मूर्तिपूजा के कट्टर विरोधी थे उनका कहना था— “यद्यपि मेरा जन्म आर्यावर्त में हुआ है और मैं यहाँ का निवासी भी हूँ…….”परन्तु मैं पाखण्ड का विरोधी हूँ और यह मेरा व्यवहार अपने देशवासियों तथा विरोधियों के साथ समान है। मेरा मुख्य उद्देश्य मानव जाति का उद्धार करना है।”
नारी अधिकारों के रक्षक
स्वामी दयानन्द को भारतीय समाज में नारी की गिरती हुई स्थिति में व्यथित कर दिया। वे नारी के उत्थान के लिये वेदों में निहित इस श्लोक को दोहराया करते थे— “यत्र नार्यस्तु, पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता।” अर्थात् “जहाँ नारी की पूजा है, वहाँ देवता निवास करते हैं।” उन्होने पर्दा प्रथा, अशिक्षा, तथा नारी की उपेक्षित और विपन्न होती स्थिति का घोर विरोध किया। उनके द्वारा स्थापित आर्य समाज ने अनेक नगरों में आर्य कन्या स्कूलों की स्थापना की। इस प्रकार उन्होंने स्त्री शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार किया। उन्होंने नारी को समान अधिकार दिलवाये। नारी से सम्बन्धित अनेक कुप्रथाओं के विरुद्ध आन्दोलन चलाकर आर्य समाज ने स्त्रियों को समाज में उच्च स्थान दिलवाया। इस प्रकार स्वामी दयानन्द ने नारी उद्धार के लिए अनेक प्रयत्न किये।
आर्य भाषा और शिक्षा का प्रसार
स्वामी दयानन्द जी समाज के सर्वांगीण विकास के समर्थक थे। वे शिक्षा का ऐसा रूप चाहते थे जिससे बौद्धिक के साथ-साथ शारीरिक, मानसिक व आत्मिक विकास भी हो। इसलिए वे पाश्चात्य शिक्षा पद्धति के विरुद्ध थे। वे व्यवस्था पर जोर देते वे अनिवार्य और निः शुल्क शिक्षा के समर्थक थे। गुरुकुल शिक्षा वे स्वयं गुजराती होते हुए भी आर्य भाषा के समर्थक थे। इसलिए उन्होंने अपनी समस्त रचनायें आर्य भाषा में कीं। एक बार उन्हें पुस्तकों के अनुवाद अन्य भाषा में कराने को कहा गया जिससे आर्य भाषा न जानने वालों को भी लाभ पहुँचे। उन्होंने आर्य भाषा की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कहा है— “अनुवाद तो विदेशियों के लिये हुआ करता है। नागरी के थोड़े से अक्षर थोड़े दिनों में सीखे जा सकते हैं। जो आर्य भाषा सीखने में थोड़ा भी श्रम नहीं कर सकता, उससे और क्या आशा की जा सकती है? उसमें धर्म की लगन है, इसका क्या प्रणाम है? आप तो अनुवाद की सम्मति देते हैं, परन्तु दयानन्द के नेत्र तो वह दिन देखना चाहते हैं जब काश्मीर से कन्याकुमारी तक, अटक से कटक तक नागरी अक्षरों का प्रचार होगा। मैंने आर्यावर्त भर में भाषा के सभ्य सम्पादन के लिये ही अपने सफल ग्रन्थ आर्य भाषा में लिखे और प्रमाणित किये हैं।” इस प्रकार दयानन्द जी ने भविष्य पर दृष्टि रखते हुए हिन्दी को मातृभाषा के रूप में अपनाया।
इस प्रकार दयानन्द एक महान् समाज सुधारक, देशभक्त तथा ईश्वरीय दूत के रूप में प्रकट हुए। उनके द्वारा स्थापित संस्था आर्य समाज भी भारत में उनके सिद्धान्तों का प्रचार एवं प्रसार कर रही है। उनके सामाजिक विचारों एवं समाज उत्थान हेतु किये गये कार्यों का मूल्यांकन करने पर यह कथन सत्य प्रतीत होता है कि ‘दयानन्द उच्च श्रेणी के निर्भीक दूत एवं समाज सुधारक थे।
आर्य समाज की स्थापना
स्वामी दयानंद ने 7 अप्रैल, 1875 को बॉम्बे में आर्य समाज की स्थापना की, जिसमें 10 सिद्धांत थे जो पूरी तरह से ईश्वर, आत्मा और प्रकृति पर आधारित हैं। वर्ष 1875 में इन्होने गुड़ी पड़वा के दिन मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की. आर्य समाज का मुख्य धर्म, मानव धर्म ही था. इन्होने परोपकार, मानव सेवा, कर्म एवं ज्ञान को मुख्य आधार बताया जिनका उद्देश्य मानसिक, शारीरिक एवम सामाजिक उन्नति था. ऐसे विचारों के साथ स्वामी जी ने आर्य समाज की नींव रखी, जिससे कई महान विद्वान प्रेरित हुए. कईयों ने स्वामी जी का विरोध किया, लेकिन इनके तार्किक ज्ञान के आगे कोई टिक ना सका. बड़े – बड़े विद्वानों, पंडितों को स्वामी जी के आगे सर झुकाना पड़ा. इसी तरह अंधविश्वास के अंधकार में वैदिक प्रकाश की अनुभूति सभी को होने लगी थी.
दयानंद सरस्वती की पुस्तकें (Swami Dayanand Saraswati books in Hindi)
उन्होंने विश्व भर में हिंदू धर्म के प्रचार-प्रसार करने के उद्देश्य से वेदों की ओर चलों का नारा दिया था जिसमे संपूर्ण विश्व को हिंदू धर्म की महत्ता से अवगत करवाना था
1. सत्यार्थ प्रकाश (Satyarth Prakash 1875 and 1884)
स्वामी जी के द्वारा लिखी गयी यह पुस्तक सबसे प्रसिद्ध व लोगों को जागरूक करने वाली हैं। पहली बार उन्होंने इस पुस्तक की रचना सन 1875 ईस्वीं में की थी जो हिंदी भाषा में थी। इस पुस्तक को उन्होंने फिर से सही करके लिखा व दूसरा संस्करण 1884 में प्रकाशित किया जो मान्य था।
यह पुस्तक हिंदी में थी किंतु वर्तमान समय में यह भारत की लगभग हर भाषा में व साथ ही विदेश की कई भाषाओँ में भी उपलब्ध हैं। इसमें 14 अध्याय हैं जिनमे वेदों का ज्ञान, चारों आश्रम, शिक्षा व अन्य धर्मों की कुरीतियों के बारे में बताया गया हैं।
2. संस्कृत वाक्य प्रबोधः (Sanskrit Vakyaprabodhini 1879)
संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार व लोगों को सिखाने के उद्देश्य से उन्होंने इस पुस्तक को लिखा। यह एक तरह से मनुष्य को संस्कृत सीखने व उसमे वार्तालाप करने के लिए प्रेरित करती हैं।
3. गोकरुणानिधि (GokarunaNidhi 1880)
भारत देश कई वर्षों से अफगान, मुगल व स्वामी जी के समय अंग्रेजों के अधीन था। उन्होंने हिंदू धर्म को चिढ़ाने के उद्देश्य से गाय माता की बलि चढ़ाना, उनका मांस खाना, गोलियों के कारतूस में गाय का मांस लगाना जैसे प्रपंच कई रचे थे। इस कारण भारत की भूमि पर भी गाय माता को मारा जा रहा था।
इसके लिए स्वामी दयानंद सरस्वती ने गाय माता की रक्षा, कृषि में उनके सहयोग, उनसे मिलने वाले लाभ, गोबर गौमूत्र इत्यादि का उपयोग, इत्यादि का इस पुस्तक में विस्तृत वर्णन किया हैं ताकि समाज के लोगों में जागरूकता फैले व गौ हत्या रुके। इसी के साथ उन्होंने इस पुस्तक में अन्य जीवों को भी ना मरने व शाकाहार अपनाने की प्रेरणा दी हैं।
4. आर्योद्देश्य रत्न माला (AaryoddeshyaRatnaMaala 1877)
इसमें उन्होंने 100 ऐसे शब्दों को समझाया हैं जो हिंदू साहित्य में मुख्य तौर पर प्रयोग में आते हैं। इन शब्दों को प्रयोग उन्हीने अपने आगे के साहित्य में भी किया हैं।
5. ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका (RigvedAadibBhasyaBhumika 1878)
यह हिंदू धर्म में वेदों के उत्थान, उनकी भूमिका व उनके उद्देश्य के बारें में बात करती हैं। ऋग्वेद चारों वेदों में सर्वप्रथम आता हैं। उन्होंने इस पुस्तक में ऋग्वेद का सारा सार बताने का प्रयास किया है
6. व्यवहारभानु (VyavaharBhanu 1879)
यह मनुष्य जीवन के प्रतिदिन के व्यवहार व कार्यों से जुड़ी पुस्तक हैं। मनुष्य के जीवन में प्रतिदिन क्या काम होता हैं, उसे उन्हें किस प्रकार करना चाहिए, किसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, क्या आदर्श अपनाने चाहिए, इत्यादि के ऊपर प्रकाश डाला गया हैं।
7. चतुर्वेद विषय सूची (Chaturved Vishay Suchi 1971)
चारों वेदों पर लिखने से पहले उन्होंने एक पुस्तक प्रकाशित की जो उन पुस्तकों की विषय सूची थी। इसमें उन्होंने यह बताया कि वे आगे आने वाली पुस्तकों में वेदों की किस प्रकार व किस रूप में व्याख्या करेंगे व साथ ही उनके बारे में संक्षिप्त परिचय दिया।
8. ऋग्वेद भाष्य, यजुर्वेद भाष्य, अष्टाध्यायी भाष्य (Rigved Bhashyam 1877 to 1899, Yajurved Bhashyam 1878 to 1889 and Asthadhyayi Bhashya 1878 to 1879)
इसके बाद उन्होंने वेदों पर कई पुस्तकें प्रकाशित की जिसमे उन्होंने सभी वेदों के सार, भूमिका, शिक्षा इत्यादि के बारे में विस्तार से बताया। उका मुख्य उद्देश्य लोगों के मन में फैली भ्रांतियों को समाप्त कर उनके मन में वेदों का प्रकाश उजागर करने का था (Vedas by Dayanand Saraswati in Hindi)।
9. भागवत खंडन/ पाखंड खंडन/ वैष्णवमत खंडन (Bhagwat Khandnam/ Paakhand Khandan/ Vaishnavmat Khandan 1866)
यह पुस्तक उन्होंने हिंदू धर्म में फैले विभिन्न प्रकार के पाखंड, कुरीतियों व प्रपंच के विरोध स्वरुप में लिखी। इसमें उन्होंने कई प्रकार की कुरीतियों व उनके दुष्प्रभावों के बारे में लोगों को बताया। साथ ही इसमें यह भी प्रकाश डाला गया कि इनका हिंदू धर्म के मूल अर्थात वेदों में कही कोई उल्लेख नही हैं। इस पुस्तक को उन्होंने कुंभ मेले में भी लोगों के बीच बंटवाया था।
10. पञ्च महायजना विधि (Panchmahayajya Vidhi 1874 and 1877)
इस पुस्तक में उन्होंने पृथ्वी के सभी अनमोल रत्नों जैसे कि भूमि, आकाश, वायु, जल इत्यादि को सुरक्षित व स्वच्छ रखने की बात कही हैं। साथ ही विभिन्न जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों को उचित सम्मान देने व उनकी हत्या ना करने की प्रेरणा दी गयी हैं।
दयानंद सरस्वती की मृत्यु
स्वामी दयानन्द सरस्वती का निधन एक वेश्या के कुचक्र से हुआ। स्वामी दयानंद सरस्वती को जोधपुर के महाराज यशवंत सिंह ने आमंत्रित किया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। स्वामी दयानंद जोधपुर गए और एक दिन वहां के दरबार में महाराज की वेश्या नन्हींजान को समीप देखकर उसकी कड़ी आलोचना कर दी। नन्हींजान आलोचना सुन कर स्वामीजी की दुश्मन बन गई। उसने अन्य विरोधियों से मिलकर स्वामीजी के रसोइए जगन्नाथ को बहकाया और उसे अपनी ओर मिला लिया। उसने दूध में विष मिलाकर स्वामी जी को पिला दिया। स्वामीजी पर उसका तुरंत असर दिखाई दिया।
इस तरह षड्यंत्र के कारण दयानंद सरस्वती की मृत्यु 30 अक्टूबर 1883 ई. को दीपावली के दिन स्वामी जी का भौतिक शरीर समाप्त हो गया।
स्वामी दयानंद सरस्वती के 5 उपदेश (5 teachings of Swami Dayanand Saraswati)
वे धर्म, अर्थ, कर्म और मोक्ष में विश्वास करते थे। उन्होंने मनुष्य के जीवन के चरणों को चार में विभाजित किया, अर्थात् ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। उनके अनुसार एक ईश्वर है – ओम, एक धर्म – वैदिक धर्म, एक शास्त्र – वेद, एक जाति – आर्य और पूजा की एक विधि – संध्या।
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